Alankarअलंकार क्या है? परिभाषा, प्रकार और भेद जानें उदाहरण सहित हिंदी में!
Alankar वह शब्द होते है जिनके प्रयोग से कोई भी कविता या छंद आकर्षक हो जाते है। अलंकार शब्द का अर्थ होता है आभूषण या सजावट। जैसे आभूषण के प्रयोग से मनुष्य आकर्षक लगने लगते है, उनके सौन्दर्य में वृद्धि हो जाती है ठीक उसी प्रकार हिंदी के काव्य में अलंकार (Alankar In Hindi) के प्रयोग से सौन्दर्य की वृद्धि होती है। किसी भी भाव को सुन्दर रूप में प्रस्तुत करने के लिए अलंकार का प्रयोग किया जाता है।
Alankar हिंदी व्याकरण में खासकर हिंदी साहित्य में अहम् भूमिका निभाते है। परन्तु इनको समझना छात्रों के लिए थोडा कठिन होता है। SSC, UPSC जैसी प्रतियोगी परीक्षाओं में अच्छे अंक हासिल करने के लिए आपका अलंकार के बारे में जानना आवश्यक है। साथ ही इनका प्रयोग करने के लिए भी इन्हें समझना ज़रूरी है।
इसलिए आज हम ये ब्लॉग लेकर आये है। इस ब्लॉग के माध्यम से हमने अलंकार और उसके विभिन्न भेदों व उपभेदों के बारे में बहुत ही सरलता से समझाया है तो आइये शुरू करते है और Alankar Kise Kahate Hain के बारे जानते है।
अलंकार किसे कहते हैं?
जो तत्व किसी भी काव्य को शब्दार्थ से सजाते है, उन्हें सुन्दर बनाते है, वही तत्व अलंकार कहलाता है। काव्य में अपने मन के भावों को सुंदर रूप से दर्शाने या प्रस्तुत करने के लिए अलंकार का प्रयोग किया जाता है। काव्य में सौन्दर्य वृद्धि के लिए कभी शब्दों का प्रयोग किया जाता है तो कभी अर्थ में चमत्कार करके सौन्दर्य वृद्धि की जाती है। इसी आधार पर अलंकार के प्रकार दो होते हैं- शब्दालंकार और अर्थालंकार।
हिंदी साहित्य में इन्ही दो अलंकारों के उपभेदों का मुख्य तौर पर प्रयोग किया जाता है जो कि है: अनुप्रास अलंकार, उपमा अलंकार, संदेह अलंकार, अतिश्योक्ति अलंकार आदि। Alankar Ke Udaharan- ‘पिया चाँद का टुकड़ा है।’- इसमें पिया के सौन्दर्य का वर्णन करने के लिए उसको चाँद के टुकड़े की उपमा दी गयी है।
अलंकार की परिभाषा
अलंकार का दूसरा नाम होता है आभूषण। जिस प्रकार मनुष्य अपने शरीर की सुंदरता बढ़ाने के लिए आभूषण का प्रयोग करता है, ठीक उसी प्रकार काव्य के सौन्दर्य में वृद्धि लाने के लिए, काव्य को और रोचक बनाने के लिए अलंकार का प्रयोग किया जाता है।
काव्य को सुन्दर, रोचक और प्रभावशाली बनाने वाले तत्वों को अलंकार कहते हैं।
अलंकार का महत्व
Alankar का महत्व तभी है जब उनका प्रयोग काव्य में सही ढंग से किया जाए। इसके लिए नीचे कुछ नियम बताये गये हैं-
- काव्य में अलंकार का प्रयोग करने से पहले रस का होना आवश्यक होता है। नीरस या बिना रस के किसी काव्य में अलंकार का प्रयोग उसी प्रकार लगता है जैसे निष्प्राण शरीर पर आभूषण।
- प्रयासपूर्वक ढंग से काव्य में अलंकार का प्रयोग किया जाना चाहिए। अन्यथा काव्य में उसका प्रभाव कम हो जाता है, और वो निष्फल लगने लगता है।
अलंकार कितने प्रकार के होते हैं
काव्य शास्त्रियों के अनुसार अलंकार के सैकड़ों भेद और उपभेद होते हैं। परन्तु यहाँ प्रतियोगी परीक्षा के हिसाब से महत्वपूर्ण सभी अलंकारों के बारे में बताया गया है।
अलंकार के निम्नलिखित 3 प्रमुख भेद माने जाते हैं-
- शब्दालंकार
- अर्थालंकार
- उभयालंकार
आइये अब एक-एक कर अलंकार के भेद के बारे में जानने और समझने का प्रयास करते हैं। सबसे पहले शुरुआत करते हैं शब्दालंकार से।
1. शब्दालंकार
जहाँ शब्दों के प्रयोग से काव्य के सौन्दर्य में वृद्धि की जाती है, वहाँ शब्दालंकार होता है। काव्य में प्रयोग किये गये शब्द विशेष उसको एक चमत्कारी रूप प्रदान करते है, इसलिए शब्दालंकार का प्रयोग करते वक़्त शब्द विशेष के समानार्थी शब्द का प्रयोग करने से वो चमत्कार समाप्त हो जाता है। सामान्य भाषा में कहा जाए तो, काव्य में जहाँ अलंकार शब्द में हो उसे शब्दालंकार कहते हैं।
दूसरे शब्दों में कहा जाए तो, काव्य में जो अलंकार शब्द विशेष पर आश्रित (Dependent) होते है, उन्हें शब्दालंकार कहा जाता है। शब्दालंकार में शब्द विशेष के प्रयोग से ही काव्य में चमत्कार होता है और सौन्दर्य उत्पन्न होते है। ऐसे में अगर उन शब्द विशेष की जगह उनके समान अर्थ धारण करने वाले शब्दों का प्रयोग किया जाए तो काव्य का चमत्कार समाप्त हो जाता है।
जैसे-
कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय।
एक खाए बौराय,एक पाए बौराय।।
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही॥
सहसबाहु भुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा॥
प्रथम चौपाई में प्रयोग किये गये शब्द विशेष ‘कनक’ को यदि इसके समानार्थी शब्द गेहूँ से बदल दिया जाए, तो इससे शब्दालंकार से काव्य में उत्पन्न हुआ चमत्कार समाप्त हो जायेगा।
ठीक उसी प्रकार दूसरी चौपाई में अगर उसमें प्रयोग हुए विशेष शब्द ‘भूमि’ या ‘भूप’ को इनके पर्यायवाची शब्दों ‘पृथ्वी’ और ‘राजा/बादशाह’ (क्रमानुसार) से बदल दिया जाए तो काव्य में चमत्कार समाप्त हो जायेगा।
शब्दालंकार के भेद
शब्दालंकार के 6 भेद होते हैं-
- अनुप्रास अलंकार
- यमक अलंकार
- श्लेष अलंकार
- पुनरुक्ति अलंकार
- वीप्सा अलंकार
- वक्रोक्ति अलंकार
1.1 अनुप्रास अलंकार
जिस काव्य में वर्ण की आवृत्ति दो या दो से अधिक बार होती है, वहां अनुप्रास अलंकार होता है। Anupras Alankar में वर्ण का बार-बार तथा पास-पास प्रयोग कर काव्य को सुन्दर ढंग से पेश किया जाता है।
अनुप्रास अलंकार के उदाहरण-
- मैया मोरी मैं नहिं माखन खायो। (इसमें ‘म’ वर्ण की आवृत्ति अधिक बार हो रही है।)
- कालिंदी कूल कदंब की डारन। (इसमें ‘क’ वर्ण की आवृत्ति अधिक बार हो रही है।)
- चारु चंद्र की चंचल किरणें खेल रही हैं जल-थल में। (इसमें ‘च’ वर्ण की आवृत्ति अधिक बार हो रही है।)
अनुप्रास अलंकार के 5 प्रकार होते हैं-
- छेकानुप्रास अलंकार
- वृत्यानुप्रास अलंकार
- लाटानुप्रास अलंकार
- अन्त्यानुप्रास अलंकार
- श्रुत्यानुप्रास अलंकार
1. छेकानुप्रास अलंकार: वह अलंकार जिसमें एक या एक से ज्यादा वर्णों की आवृत्ति केवल एक क्रम और स्वरुप में हो, छेकानुप्रास अलंकार कहलाता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो, जहाँ पर एक क्रम (Sequence) और स्वरुप (Form) में एक या एक से अधिक वर्णों को दोहराया गया हो, वह छेकानुप्रास अलंकार है।
जैसे-
इस करुणा कलित हृदय में,
अब विकल रागिनी बजती।
इस पंक्ति में ‘करुणा कलित’ में ‘क’ वर्ण की आवृत्ति एक क्रम और स्वरुप में हुई है इसलिए ये छेकानुप्रास अलंकार है।
2. वृत्यानुप्रास अलंकार: जिस अलंकार में एक या एक से अधिक वर्णों की आवृत्ति बार-बार होती हो, वहां वृत्यानुप्रास अलंकार होता है। जैसे-
चामर-सी, चन्दन-सी, चंद-सी,
चाँदनी चमेली चारु चंद-सुघर है।
इसमें वर्ण ‘च’ की आवृत्ति अनेक बार हो रही है, इसलिए ये वृत्यानुप्रास अलंकार है।
3. लाटानुप्रास अलंकार: जब काव्य में किसी शब्द या वाक्यांश को स्वरूपगत दोहराया जाए, परन्तु उसका अर्थ दूसरे वाक्य में बदल जाए या भिन्न हो, तब वह अलंकार लाटानुप्रास अलंकार कहलाता है। काव्य में यदि लाटानुप्रास अलंकार होता है तो उसका प्रयोग लगभग 70 प्रतिशत तक किया जाता है।
जैसे-
पूत कपूत तो क्यो धन संचे।
पूत सपूत तो क्यो धन संचे।
जैसे की आपने देखा की इस उदाहरण में स्वरूपगत तरीके से शब्द तथा वाक्य की आवृत्ति हुई है, परन्तु दोनों ही वाक्यों में उसका अर्थ भिन्न है, इसलिए ये लाटानुप्रास अलंकार है।
4. अन्त्यानुप्रास अलंकार: जब काव्य में दो वाक्यों के बीच तुक मिलाने के लिए वाक्य के अंत में एक ही वर्ण और स्वर की आवृत्ति की जाती है, वहाँ अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है।
जैसे-
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर।
जय कपीश तिहुँ लोक उजागर।
इसमें वाक्यों के अंत में तुक मिलाने के लिए शब्द ‘आगर’ तथा वर्ण ‘र’ को अंत में दोहराया गया है, इसलिए ये अन्त्यानुप्रास अलंकार है।
5. श्रुत्यानुप्रास अलंकार: श्रुत्यानुप्रास अलंकार में ‘श्रुत‘ शब्द का अर्थ होता है ‘सुना हुआ‘। इसलिए श्रुत्यानुप्रास अलंकार की पहचान भी सुनने से ही है। किसी काव्य की पंक्ति के सौन्दर्य को बढ़ाने के लिए जब एक ही उच्चारण स्थान वाले वर्णों का अधिक प्रयोग किया जाता है, वह श्रुत्यानुप्रास अलंकार होता है।
जैसे-
छोरटी है गोरटी या चोरटी अहीर की।
इस पंक्ति में प्रयोग किये गये वर्ण ‘छ, च, ट‘ का उच्चारण स्थान एक है- ‘तालु’ तथा वर्ण ‘ह, ग, अ, क’ का उच्चारण स्थान एक है- ‘कंठ’। इसलिए ये श्रुत्यानुप्रास अलंकार है।
उम्मीद है अब आप समझ गये होंगे अनुप्रास अलंकार किसे कहते हैं। आइये अब आगे बढ़ते हैं और शब्दालंकार के अन्य भेदों के बारे में जानते हैं।
1.2 यमक अलंकार
जब काव्य या कविता की किसी पंक्ति के सौन्दर्य में वृद्धि करने के लिए एक ही शब्द का प्रयोग दो या दो से अधिक बार किया जाए परन्तु हर बार उस शब्द का अर्थ भिन्न निकले, वह होता है Yamak Alankar।
यमक अलंकार के उदाहरण –
काली घटा का घमंड घटा, नभ तारक मंडलवृंद खिले।
इस पंक्ति में ‘घटा’ शब्द का प्रयोग दो बार हुआ है, और दोनों बार उसका अर्थ अलग है। पहली बार प्रयोग किये गये ‘घटा’ शब्द का मतलब है बादल और दूसरी घटा का मतलब है कम होने से।
कहै कवि बेनी, बेनी व्याल की चुराई लीनी।
इसमें पहली पंक्ति में दो बार प्रयोग किये गये शब्द ‘बेनी’ का अर्थ दोनों बार अलग है। एक बेनी का अर्थ कविता लिखने वाले कवि के नाम से है, तथा दूसरे बेनी का अर्थ स्त्री की चोटी से है।
तीन बेर खाती थी वे तीन बेर खाती है।
इस पंक्ति में बेर शब्द के दोनों बार दो अर्थ हैं, पहले बेर का अर्थ ‘बार’ यानी समय से है, तथा दूसरे बेर का अर्थ फल से है।
1.3 श्लेष अलंकार
जहाँ पंक्ति में एक शब्द का प्रयोग केवल एक से अधिक बार किया जाए, परन्तु उस शब्द के वाक्य में एक से ज्यादा अर्थ निकले, तब वह श्लेष अलंकार कहलाता है। इसमें पंक्ति में एक शब्द का प्रयोग केवल एक ही बार किया जाता है परन्तु उसी शब्द के स्थान पर उसके अनेक अर्थ निकलते हैं। जब पंक्ति में एक ही शब्द से कई अर्थ व्यक्त किये जाते हैं, वहां श्लेष अलंकार होता है।
श्लेष अलंकार के उदाहरण-
मंगल को देखि पट देत बार-बार है।
यहाँ शब्द ‘पट’ के दो अर्थ निकल रहे हैं, पट= वस्त्र, जैसे किसी माँगनेवाले को देख कर बार-बार वस्त्र देना। तथा पट का दूसरा अर्थ- दरवाज़ा बंद करना, जैसे किसी माँगनेवाले को देख कर बार-बार दरवाज़ा बंद कर देना।
जलने को ही स्नेह बना, उठने को ही वाष्प बना।
इस पंक्ति में परिस्थिति के अनुसार जलने, स्नेह तथा वाष्प शब्दों में श्लेष अलंकार है। तीनों के निम्न अर्थ निकलते हैं।
जलने= जलना, दुःख उठाना
स्नेह= तेल, प्रेम
वाष्प= भाप, आंसू
सुबरन को खोजत फिरत, कवि, व्यभिचारी, चोर।
इस पंक्ति में सुबरन शब्द का अर्थ दो तरह से निकलता है, सुबरन = सोना, सुन्दर रंग, रूप (स्त्री)।
1.4 पुनरुक्ति अलंकार
पुनरुक्ति शब्द दो शब्दों के योग से बना है, पुन: और युक्ति। जिसमें ‘पुन:’ का अर्थ होता है- ‘फिर से’ या ‘दुबारा’ और उक्ति शब्द का अर्थ होता है कथन से है। जब पंक्ति में एक शब्द का प्रयोग दो या दो से अधिक बार पास-पास किया जाए, क्रम के अनुसार किया जाए तथा उस शब्द का अर्थ भी एक ही हो, वहां पुनरुक्ति अलंकार होता है।
उदाहरण-
मधुर वचन कहि-कहि परितोषीं।
ठौर-ठौर विहार करती सुरनारियाँ, तथा धीरे-धीरे वहन करके तू उन्हीं को उड़ा ला।
मृदु मंद-मंद मंथर-मंथर, लघु तरणि, हंसनी सी सुंदर।
ऊपर दी गयी पंक्तियों में, पहली पंक्ति में- कहि-कहि, दूसरी पंक्ति में- ठौर-ठौर, धीरे-धीरे तथा तीसरी पंक्ति में- मंद-मंद और मंथर-मंथर में पुनरुक्ति अलंकार है। इनमें शब्दों की आवृत्ति दो बार हुई है तथा शब्द के अर्थ भी समान है।
1.5 वीप्सा अलंकार
जब मन के भावों को प्रभावशाली रूप से दर्शाने के लिए एक ही शब्द को दोहराया जाता है या उसकी आवृत्ति की जाती है, तब वह वीप्सा अलंकार कहलाता है। वीप्सा अलंकार को पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार भी कहा जाता है।
वीप्सा अलंकार का प्रयोग तब किया जाता है जब एक शब्द की आवृत्ति घृणा, आश्चर्य, रोचकता, आदर, वैराग्य आदि भावों को दर्शाने के लिए की जाती है।
उदाहरण-
शिव शिव शिव कहते हो यह क्या?
ऐसा फिर मत कहना।
राम राम यह बात भूलकर, मित्र कभी मत गहना।
चिता जलाकर पिता की, हाय-हाय मैं दीन।
नहा नर्मदा में हुआ, यादों में तल्लीन।
इन दोनों काव्यांशों में दुःख जैसे भावों को प्रभावशाली रूप से प्रकट करने के लिए एक ही शब्द की आवृत्ति हुई है।
1.6 वक्रोक्ति अलंकार
पंक्ति में जहाँ वक्ता द्वारा कहे गये कथन का मतलब श्रोता द्वारा कुछ और या अलग निकाला जाता है, वहां वक्रोक्ति अलंकार होता है। वक्रोक्ति शब्द में दो शब्दों का योग है- वक्र और उक्ति, जहाँ वक्र का अर्थ होता है टेढ़ा-मेढ़ा और उक्ति मतलब कथन, जिससे तात्पर्य है कि वक्रोक्ति अलंकार का प्रयोग वहाँ होता है, जहाँ वक्ता के द्वारा कही गई बात का श्रोता कोई विचित्र ही अर्थ निकाल लेता है।
उदाहरण-
एक कह्यौ ‘वर देत भव, भाव चाहिए चित्त’।
सुनि कह कोउ ‘भोले भवहिं भाव चाहिए मित्त’।
पहली पंक्ति में वक्ता ने कहा कि भव यानी शिव जी वरदान देते हैं, पर उसके लिए मन में भाव होना चाहिए। वहीँ इसको सुनकर एक श्रोता ने कहा- अरे मित्र, भोले शिव के लिए भाव चाहिए? अर्थात शिव तो इतने भोले हैं कि उन्हें लुभाने के लिए भाव की भी ज़रूरत नहीं।
मैं सुकुमारि नाथ वन जोगू।
तुमहिं उचित तप, मोकहूँ भोगू।।
यह कथन सीता जी ने राम जी के लिए किया है, इसमें उन्होंने कहा है कि, मैं सुकुमारी हूँ इसलिए घर में रहूँ और मेरे पति वन के लायक हैं। जबकि वास्तव में उनके इस कथन का अर्थ है कि सीता जी स्वयं भी अपने नाथ के साथ वन में जाना चाहती हैं।
वक्रोक्ति अलंकार के दो भेद हैं-
- काकु वक्रोक्ति
- श्लेष वक्रोक्ति
* काकु वक्रोक्ति: जब वक्ता के द्वारा बोले गये कथन का श्रोता उसके कंठ की ध्वनि या आवाज़ में परिवर्तन के कारण कुछ भिन्न अर्थ निकालता है, वह काकु वक्रोक्ति अलंकार कहलाता है। जैसे-
जाओ मत, बैठो।
जाओ, मत बैठो।
* श्लेष वक्रोक्ति: जब वक्ता द्वारा किये गये कथन में एक ही शब्द के साथ कई अर्थ चिपके हों और श्रोता अपने हिसाब से उस शब्द का अर्थ समझकर, वक्ता द्वारा कही गयी उस बात को इस कारण से न समझ पाए, तब उसे कहते हैं श्लेष वक्रोक्ति अलंकार। जैसे-
एक कबूतर देख हाथ में पूछा कहाँ अपर है?
कहा अपर कैसा? वह उड़ गया सपर है।
पहली पंक्ति में जहाँगीर ने दूसरा कबूतर कहाँ है ये जानने के लिए ‘अपर’ शब्द का प्रयोग किया है। वहीँ नूरजहाँ ने जवाब देते हुए जहाँगीर द्वारा उपयोग किये गये शब्द ‘अपर’ का अर्थ ‘बिन पर/पंख वाला’ से निकाला है।
2. अर्थालंकार
काव्य में जब अलंकार अर्थ में हो तब वह अर्थालंकार कहलाता है। जब काव्य के सौन्दर्य में वृद्धि लाने के लिए शब्द के अर्थ के कारण चमत्कार उत्पन्न होता है, वहाँ अर्थालंकार होता है। यानी अर्थालंकार में यदि एक शब्द की जगह उसके समानार्थी शब्द का प्रयोग किया जाए, तब भी काव्य में चमत्कार उत्पन्न होगा।
उदाहरण- ‘चट्टान जैसे भारी स्वर’ इसमें यदि चट्टान शब्द की जगह उसके पर्यायवाची शब्द ‘शीला’ का प्रयोग किया जाए, तब भी इस पंक्ति में चमत्कार बना रहेगा। इसलिए यहाँ अर्थालंकार है।
अर्थालंकार के भेद
वैसे तो अर्थालंकार के कई भेद होते हैं। आचार्य मम्मट के अनुसार अर्थालंकार के 61 भेद हैं, वहीं चंद्रालोक में 100 अर्थालंकार का वर्णन किया गया है। परन्तु यहाँ हम अर्थालंकार के 13 प्रमुख अर्थालंकार के भेदों के बारे में जानकारी देने वाले हैं, जो प्रतियोगी परीक्षा के हिसाब से महत्वपूर्ण हैं।
- उपमा अलंकार
- रूपक अलंकार
- उत्प्रेक्षा अलंकार
- अतिशयोक्ति अलंकार
- मानवीकरण अलंकार
- विभावना अलंकार
- भ्रांतिमान अलंकार
- संदेह अलंकार
- अन्योक्ति अलंकार
- विरोधाभास अलंकार
- विशेषोक्ति अलंकार
- प्रतीप अलंकार
- अर्थान्तरन्यास अलंकार
2.1 उपमा
उपमा शब्द का अर्थ होता है- तुलना। जहाँ काव्य में एक वस्तु या व्यक्ति की तुलना किसी दूसरे प्रसिद्द वस्तु या व्यक्ति से की जाती है, तब वहां उपमा अलंकार होता है। इसमें दोनों वस्तुओं में भेद होने के बावजूद भी धर्मगत समता (बराबरी) दिखाई जाती है।
जैसे- ‘पीपर पात सरिस मन डोला।’ इसमें मनुष्य के मन के डोलने की तुलना पीपल के पत्ते से की गयी है.
उपमा अलंकार के उदाहरण को और अच्छी तरह से समझाने के लिए नीचे अर्थालंकार के अंग बताये गये हैं।
उपमा अर्थालंकार के 4 अंग होते हैं-
- उपमेय: पंक्ति में जिस व्यक्ति या वस्तु की तुलना की जाती है, उसे उपमेय कहते है। ऊपर दिए गये उदाहरण में ‘मन’ उपमेय है।
- उपमान: पंक्ति में जिस प्रसिद्द वस्तु या व्यक्ति से तुलना की जाती है, उसे उपमान कहते हैं। ‘पीपर पात’ उपमान है।
- समान धर्म: उपमेय और उपमान की उस विशेषता को समान धर्म कहा जाता है जो दोनों में एक समान होती है। ‘डोलना’ समान धर्म है।
- वाचक शब्द: वाचक शब्द वो शब्द कहलाता है जिससे समानता प्रकट की जाती है, जैसे- सा, सी, सम, समान, सरिस आदि। ऊपर दिए गए उदाहरण में ‘सरिस’ वाचक शब्द है।
उपमा अर्थालंकार के 3 भेद हैं-
- पूर्णोपमा
- लुप्तोपमा
- मालोपमा
* पूर्णोपमा: पूर्णोपमा शब्द में दो शब्दों का योग है- पूर्ण और उपमा, अर्थात जहाँ पंक्ति में उपमा के पूर्ण यानी सारे 4 अंग मौजूद होते हैं, वह पूर्णोपमा होता है। जैसे- ‘नील गगन-सा शांत हृदय’- इस पंक्ति में उपमा के चारों अंग, उपमेय- हृदय, उपमान- नील गगन, समान धर्म- शांत और वाचक शब्द- सा विद्यमान हैं, इसलिए यह पूर्णोपमा है।
* लुप्तोपमा: जहाँ पंक्ति में उपमा के एक या एक से ज्यादा अंग लुप्त (गायब) होते हैं, वहां लुप्तोपमा होता है। जैसे- ‘कोटी कुलिस सम वचन तुम्हारा’ – इस पंक्ति में उपमा के सिर्फ तीन अंग विद्यमान हैं, उपमेय- वचन, उपकमान- कुलिस, और वाचक शब्द- सम, इसलिए यह लुप्तोपमा है।
* मालोपमा: यह उपमा अलंकार का वह भेद है जिसमें एक ही उपमेय के एक से ज्यादा उपमान होते हैं, इसे मालोपमा कहते हैं। जैसे- ‘हिरनी से मीन से, सुखंजन समान चारु, अमल कमल से, विलोचन तिहारे हैं।’- इस पंक्ति में ‘विलोचन या नेत्र’ उपमेय के लिए कम उपमान (हिरनी से, सुखंजन, अमल) दिए गये हैं। इसलिए यहाँ मालोपमा अलंकार है।
2.2 रूपक अलंकार
जहाँ काव्य की पंक्ति में उपमेय और उपमान के बीच के अंतर को समाप्त करके उन्हें एक जैसा रूप दिया जाता है, वह Roopak Alankar होता है। इसी कारण इसमें वाचक शब्द का लोप भी होता है।
रूपक अलंकार के उदाहरण-
भजमन चरण कँवल अविनाशी।
ईश्वर के चरणों (उपमेय) पर कँवल (कमल) उपमान का आरोप।
इस पंक्ति में उपमेय ‘चरण’ पर उपमान ‘कँवल’ के बीच के अंतर को समाप्त कर दिया गया है और दोनों को एक रूप दिखाया गया है, अर्थात उपमेय पर उपमान का आरोप है।
मैया मैं तो चंद्र-खिलौना लैहों।
इस पंक्ति में चंद्र (उपमेय) पर खिलौना (उपमान) का आरोप है।
2.3 उत्प्रेक्षा अलंकार
उत्प्रेक्षा का अर्थ होता है अनुमान। जहाँ पंक्ति में उपमेय के रूप, गुण आदि की समानता के कारण उपमान का अनुमान लगा लिया जाए, वह उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। इसमें वाचक शब्दों का प्रयोग किया जाता है जैसे- मनु, जनु, मनहु, मानो, जानो, निश्चय, ईव आदि।
उदाहरण-
देखि रूप लोचन ललचाने। हरषे जनु निज निधि पहिचाने।।
इस पंक्ति में राम जी के सौन्दर्य रूप (उपमेय) में निधि यानी खजाना (उपमान) की कल्पना की गयी है।
उत्प्रेक्षा अलंकार के 3 भेद हैं, जो उत्प्रेक्षा अलंकार के उदाहरण सहित बताये गये हैं-
- वस्तुप्रेक्षा अलंकार
- हेतुप्रेक्षा अलंकार
- फलोत्प्रेक्षा अलंकार
* वस्तुप्रेक्षा अलंकार: जब किसी वस्तु के उपमान की संभावना उसके उपमेय में की जाए, तब वह होता है वस्तुप्रेक्षा अलंकार। जैसे- ‘मुख मानो चन्द्रमा है।’- इस पंक्ति में मुख की कल्पना या संभावना चंद्रमा से की जा रही है। इसलिए ये वस्तुप्रेक्षा है।
* हेतुप्रेक्षा अलंकार: हेतु का शाब्दिक अर्थ होता है ‘कारण’। पंक्ति में जब वास्तविक कारण के अलावा किसी अन्य या अवास्तविक कारण की संभावना लगायी जाती है, वहां हेतुप्रेक्षा अलंकार होता है। जैसे-
पिउ सो कहेव सन्देसड़ा, हे भौंरा हे काग।
सो धनि विरही जरिमुई, तेहिक धुवाँ हम लाग।
इस पंक्ति में भौंरा और काग के काले रंग का कारण विरहिणी (प्रिये से बिछड़ा हुआ) के विरहाग्नि में जल कर मरने का धुवाँ बताया गया है, जबकि यह वास्तविक कारण से विपरीत है तब भी इसे यहाँ कारण माना गया है इसलिए यह हेतुप्रेक्षा अलंकार है।
* फलोत्प्रेक्षा अलंकार: पंक्ति में जहाँ कर्म फल प्राप्त करने के उद्देश्य से किया जाता है तथा कर्म के अवास्तविक फल को वास्तविक फल मान लिया जाता है, वहां फलोत्प्रेक्षा अलंकार होता है।
जैसे- ‘नायिका के चरणों की समानता प्राप्त करने के लिए कमल जल में तप रहा है।’- इस पंक्ति में कमल फूल का जल में तप करना स्वाभाविक है परन्तु उसका तप इस फल- ‘चरणों की समानता प्राप्त करने के लिए’ करना अवास्तविक है फिर भी उसे वास्तविक फल मान लिया गया है।
2.4 अतिशयोक्ति अलंकार
जब पंक्ति में किसी विषय वस्तु के रूप, गुण, सौन्दर्य आदि का वर्णन इतना बढ़ा-चढ़ाकर किया जाए की वो अवास्तविक लगने लगे या उस पर विश्वास करना कठिन हो जाए, वह अतिश्योक्ति अलंकार होता है।
जैसे-
हनुमान की पूँछ में, लगन न पाई आग।
सारी लंका जरि गई, गए निशाचर भाग।
इस पंक्ति में सारी लंका का जलना और राक्षसों का भागना वो भी हनुमान जी की पूँछ में आग लगने से पहले ही, का वर्णन अतिशयोक्तिपूर्ण तरीके से किया गया है।
एक दिन राम पतंग उड़ाई। देवलोक में पहुँची जाई।।
इस पंक्ति में राम द्वारा उड़ाई पतंग का इतना ऊँचा उड़ जाना की वो सीधे देवलोक पहुँच जाए, ये वर्णन बढ़ा-चढ़ा कर किया गया है। इसलिए ये अतिश्योक्ति अलंकार है।
2.5 मानवीकरण अलंकार
किसी पंक्ति में जब प्रकृति के निर्जीव पदार्थों के गुणों का वर्णन मनुष्य के व्यवहार या क्रियाओं से किया जाये, वह मानवीकरण अलंकार होता है।
उदाहरण-
हरषाया ताल लाया पानी परात भरके।
इस पंक्ति में जैसे इंसान किसी मेहमान के स्वागत पर पानी लेकर आते हैं ठीक वैसे ही बताया गया है कि मेहमान के आने पर तालाब खुश हो कर परात भर के पानी लेकर आया है. इसलिए यहाँ मानवीकरण है।
लोने-लोने वे घने चने क्या बने-बने इठलाते हैं, हौले-हौले होली गा-गा धुंघरू पर ताल बजाते हैं।
यहाँ चने पर इठलाने, गाने और ताल बजाने में मानवीय क्रियाओं का आरोप है इसलिए यह मानवीकरण है।
2.6 विभावना अलंकार
जब पंक्ति में बिना किसी कारण के ही कार्य के होने का वर्णन किया जाता है, वह विभावना अलंकार है।
उदाहरण-
बिनु पग चलइ सुनइ बिनु काना, कर बिनु करम करै विधि नाना।
आनन रहित सकल रस भोगी, बिनु बानी वक्ता बड़ जोगी।
इस पंक्ति में बिना पैरों के चलना, बिना कानो के सुनना, हाथो के बिना विविध कार्य करना, मुहँ के बिना ही रस भोगना, आदि का उल्लेख होने से यहाँ विभावना अलंकार है।
2.7 भ्रांतिमान
जहाँ दो या दो से अधिक वस्तुओं में समानता के कारण भ्रम की स्तिथि उत्पन्न हो जाए, यानी एक वस्तु को भ्रम के कारण कोई और वस्तु समझ लिया जाए, वहां भ्रांतिमान अलंकार होता है।
उदाहरण-
किंसुक कुसुम समझकर झपटा, भौरा सुक की लाल चोंच पर।
तोते ने निज ठौर चलाई, जामुन का फल उसे समझ कर।
इस पंक्ति में भौरा तोते की चोंच को किंसुक कुसुम समझकर झपट पड़ा यानी उसे भ्रम हुआ की तोते की चोंच किंसुक कुसुम है, और तोते ने भौरा को जामुन का फल समझ लिया। अत: भ्रांतिमान अलंकार है।
2.8 संदेह अलंकार
जहाँ एक वस्तु पर उसी के सामान कोई दूसरी या अन्य वस्तु होने का संशय/संदेह उत्पन्न हो जाए है और अनिश्चय की स्तिथि बनी रहे, वहां संदेह अलंकार होता है।
उदाहरण-
लक्ष्मी थी या दुर्गा थी या स्वयं वीरता की अवतार।
यहाँ अनिश्चय की स्तिथि बनी हुई है, कवि तय ही नहीं कर पा रहा की वह लक्ष्मी, दुर्गा या वीरता के अवतार में से कौन थी। अथवा यहाँ साहस किसने किया इसका संशय है।
2.9 अन्योक्ति अलंकार
जहाँ कविता में किसी बात को सीधे तरीके से न कहकर अप्रत्यक्ष (Indirect) तरीके से कहा जाता है, वहां अन्योक्ति अलंकार होता है। इसमें किसी व्यक्ति या वस्तु को लक्ष्य बनाकर बात किसी दूसरे के लिए कही जाती है।
उदाहरण-
माली आवत देखकर, कलियन करी पुकारि।
फूले-फूले चुन लिए, काल्हि हमारी बारि।
इस पंक्ति में माली (यहाँ काल का प्रतिक) को आता देख कलियाँ कह रही हैं वृद्ध फूल आज चुन लिए गये हैं कल हमारी बारी। आज काल वृद्ध फूलों का है कल काल हमारा (जो आज कलियाँ हैं) होगा। यहाँ अप्रत्यक्ष रूप से बात किसी को लक्षित कर के कही जा रही है,इसलिए यह अन्योक्ति अलंकार है।
2.10 विरोधाभास अलंकार
जहाँ काव्य में असल में विरोध न होने के बावजूद भी विरोध के होने का संकेत होता है, वहां विरोधाभास अलंकार होता है।
उदाहरण-
मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,
शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ।
यहाँ ‘रोदन में राग’ और ‘शीतल वाणी में आग’ में विरोध न होते हुए भी उसका आभास हो रहा है, इसलिए ये विरोधाभास अलंकार है।
2.11 विशेषोक्ति अलंकार
जहाँ किसी काव्य में कारण के होते हुए भी काम होता नहीं है, वहां विशेषोक्ति अलंकार होता है। उदाहरण-
पानी बिच मीन पियासी,
मोहे सुनि-सुनि आवै हाँसी।
इस पंक्ति में बताया गया है कि पानी के बीच रहते हुए भी मीन (मछली) प्यासी है, इसमें कार्य करने का कारण मौजूद है परन्तु कार्य फिर भी नहीं हो पा रहा है इसलिए यह विशेषोक्ति अलंकार है।
2.12 प्रतीप अलंकार
प्रतीप का अर्थ होता है ‘विपरीत’। प्रतीप अलंकार को उपमा अलंकार के विपरीत माना जाता है। इसमें उपमान की तुलना उपमेय से की जाती है और उपमान को लज्जित, हीन और पराजित दिखाया जाता है। जैसे-
‘काहे करत गुमान ससि! तव समान मुख मंजुI’
यहाँ ससि (चाँद) को मुख के समान बताया गया है। अर्थात उपमान (चाँद) का अनादर किया गया है इसलिए ये प्रतीप अलंकार है।
2.13 अर्थान्तरन्यास अलंकार
जहाँ काव्य में किसी सामान्य कथन का समर्थन विशेष कथन से किया जाए या इसके विपरीत विशेष कथन का समर्थन किसी सामान्य कथन के द्वारा किया जाए, वहां अर्थान्तरन्यास अलंकार होता है।
उदाहरण-
बडे न हूजे गुनन बिन बिरद बड़ाई पाय।
कहत धतूरे सौं कनकु गहनौ गढ़यौ न जाइ।।
इस पंक्ति में कथन- ‘व्यक्ति गुणों के बिना बड़ा (महान) नहीं हो सकता’ का समर्थन करने के लिए दूसरे कथन- ‘धतूरे को भी कनक कहा जाता है लेकिन सोने की तरह उसके गहने नहीं बनवाए जा सकते’ से किया गया है। अत: यहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार है।
3. उभयालंकार
उभयालंकार में शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों का योग होता है। अर्थात जहाँ काव्य के सौंदर्य में वृद्धि लाने के लिए शब्द और अर्थ दोनों के माध्यम से चमत्कार उत्पन्न किया जाता है और उन्हें एक रोचक रूप दिया जाता है, वह उभयालंकार होता है। उदाहरण- ‘कजरारी अखियन में कजरारी न लखाय।’- इस पंक्ति में ‘कजरारी’ और ‘अखियन’ से चमत्कार उत्पन्न हो रहा है इसलिए ये उभयालंकार है।
उभयालंकार के दो भेद होते हैं-
- संसृष्टि उभयालंकार
- संकर उभयालंकार
3.1 संसृष्टि उभयालंकार
जहाँ पंक्ति में दो या दो से ज्यादा अलंकार एक साथ होने के बावजूद स्पष्ट रहें, यानी अनेकों अलंकार की पहचान आसानी से की जा सके वहां होता है संसृष्टि अलंकार। इसमें अनेकों अलंकार घुलते-मिलते नहीं है इसलिए स्पष्ट रहते हैं। जैसे-
तिरती गृह वन मलय समीर, साँस, सुधि, स्वप्न, सुरभि, सुखगान।
मार केशर-शर, मलय समीर, ह्रदय हुलसित कर पुलकित प्राण।
यहाँ शब्दालंकार और अर्थालंकार आसानी से पहचाने जा सकते हैं इसलिए ये संसृष्टि अलंकार है.
3.2 संकर उभयालंकार
जहाँ पंक्ति में दो या दो से अधिक अलंकार एक दूसरे के साथ पानी और दूध की तरह घुल-मिल जाते हैं, वहां संकर उभयालंकार होता है। जैसे-
नाक का मोती अधर की कान्ति से, बीज दाडिम का समझकर भ्रान्ति से।
देखकर सहसा हुआ शुक मौन है, सोचता है अन्य शुक यह कौन है?
MCQs
नीचे दी गयी काव्य पंक्तियों में कौनसे अलंकार का प्रयोग किया गया है, बताएं।
1. पापी मनुज भी आज मुख से, राम नाम निकालते।
(a) अन्योक्ति (b) अतिश्योक्ति (c) विरोधाभास (d) विभावना
उत्तर: (c) विरोधाभास
2. तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाए।
(a) अनुप्रास (b) उत्प्रेक्षा (c) यमक (d) उपमा
उत्तर: (a) अनुप्रास
3. काली घटा का घमण्ड घटा।
(a) रूपक (b) उपमा (c) यमक (d) उत्प्रेक्षा
उत्तर: (c) यमक
4. चरण कमल बंदौ हरिराई।
(a) उत्प्रेक्षा (b) रूपक (c) उपमा (d) यमक
उत्तर: (b) रूपक
5. पट-पीत मानहुँ तड़ित रुचि, सुचि नौमि जनक सुतावरं।
(a) उत्प्रेक्षा (b) उपमा(c) रूपक (d) उदाहरण
उत्तर: (a) उत्प्रेक्षा
6. देखि सुदामा की दीन दशा, करुणा करके करुणानिधि रोए।
पानी परायत को हाथ छुओ नाहिं, नयनन के जल से पग धोये।
(a) उल्लेख (b) भ्रांतिमान (c) अन्योक्ति (d) अतिश्योक्ति
उत्तर: (d) अतिश्योक्ति
7. मेघ आए बड़े बन-ठनके सँवर के।
(a) प्रतीप (b) भ्रांतिमान (c) मानवीकरण (d) संदेह
उत्तर: (c) मानवीकरण अलंकार
8. कूड़ कपड़ काया का निकस्या।
(a) रूपक (b) श्लेष (c) अनुप्रास (d) मानवीकरण
उत्तर: (c) अनुप्रास
9. मखमली पेटियों-सी लटकीं।
(a) उत्प्रेक्षा (b) उपमा (c) रूपक (d) विभावना
उत्तर: (b) उपमा
10. पीपर पात सरिस मन डोला।
(a) उपमा (b) भ्रन्तिकरण (c) प्रतीप (d) रूपक
उत्तर: (a) उपमा
Conclusion
आज के इस लेख के माध्यम से हमने आपको प्रतियोगी परीक्षा के हिसाब से महत्वपूर्ण अलंकार और Alankar Ke Prakar के बारे में जानकारी दी है। इसमें हमने आपको Alankar Ki Paribhasha, अलंकार के कितने भेद होते हैं और Alankar In Hindi Grammar का महत्व क्या है, आदि जानकारी सरल तरीके से बताने का प्रयास किया है। हमें उम्मीद है ये लेख आपके लिए उपयोगी साबित हुआ होगा।